मोरपंख भस्म --
मोरमुकुटधारी भगवान् कृष्णजी की माता को उनके प्राण सदा संकटग्रस्त दिखाई देते थे। माता यशोदा को भी कृष्ण के जीवन के लिये जितना भय कंस से था उससे भी अधिक भय ग्रह-बाधाओं से भी था।
- पूतना एक ऐसी ही छद्माचारी बाधा थी जो माता के दूध में मिलकर क्षीराद् ( केवल माँ का ही दूध पीने वाले ) शिशुओं के शरीर व रक्त में प्रविष्ट होकर उनके प्राण हरण कर लेती थी।
- ग्रहबाधा को हम एक ऐसे सूक्ष्म घटक के रूप में समझ सकते हैं जो क्षीराद् शिशुओं को ग्रहण कर उनकी अकाल मृत्यु का कारण बन जाता है। आधुनिक चिकित्सा शास्त्र में भी कुछ इसी प्रकार की बीमारियाँ हैं।
- कंस और पूतना से भयभीत ममतामयी माता यशोदा ने मयूरपिच्छ को ग्रहबाधा निवारक और विषघ्न के रूप में मयूरपिच्छ को कृष्ण के सिर का आभूषण ही बना दिया।
- यह मयूरपिच्छ की ही महिमा थी कि कृष्ण सदा ग्रहबाधाओं तथा विषों से अपने प्राणों की रक्षा करते रहे।
- आयुर्वेद के वैद्य आज भी मयूरपिच्छ भस्म का उपयोग करते हैं।
- इसी तरह नवनीत या मक्खन भी एक श्रेष्ठ विषघ्न के रूप में आयुर्वेद में प्रतिष्ठित है। और यह तो सभी जानते हैं कि कान्हा को माखन कितना प्रिय था।
- वराधः (बच्चों का एक रोग हब्बा-डब्बा)-
जोर जोर से साँस और पसली चलने की एक बीमारी जो बच्चों को होती है। मोरपंख की भस्म 1 ग्राम, काली मिर्च का चूर्ण 1 ग्राम। इनको घोंटकर छः मात्रा बनायें। जरूरत के अनुसार दिन में 1-1 मात्रा तीन-चार बार दें।
- बार-बार उल्टी-दस्त के लिए मोरपंख की भस्म की एक चुटकी शहद में मिलाकर दिन में एक से दो बार लें।
- मोर पंख भस्म को शहद में देने से हिचकी बंद होती है।
- श्वास (दमा) में अत्यंत गुणकारी है। चक्कर आदि में लाभकारी। मात्रा 1 से 3 रत्ती शहद से।
- ओपरेशन के बाद होने वाली उलटी और हिचकियों से बचने के लिए भी मयुरपिच्छ भस्म का उपयोग किया जाता है.
- यह सभी हार्मोनल इम्बेलेंस को भी दुरुस्त करता है.
- सोलह संस्कारों में गर्भाधान संस्कार के बाद पुंसवन संस्कार होता है जिसमे गर्भस्थ शिशु को पुष्ट बनाने का प्रयास किया जाता है. इसके लिए मयुर्पिच्छ भस्म , स्वर्ण भस्म , प्रवाल पिष्टी , रजत भस्म के मिश्रण का प्रयोग होता है.
- मयुरपिच्छ भस्म सबसे ज़हरीले सर्पों के भी सर्पदंश के विष को निष्प्रभावी करता है.
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