Saturday 10 October 2015

किडनी बेकार, जिंदगी नहीं
















किडनी बेकार, जिंदगी नहीं

बदलते लाइफस्टाइल से दूसरी बीमारियों के साथ-साथ किडनी खराब होने के मामले भी बढ़ रहे हैं। एक बार किडनी की बीमारी हो गई तो ज्यादातर लोग जिंदगी से हताश हो जाते हैं, जबकि सच यह है कि अगर सही से इलाज कराया जाए और पूरी सावधानियां बरती जाएं तो किडनी खराब होने के बाद भी मरीज लंबी ठीक-ठाक जिंदगी जी सकता है। इस बीमारी के बारे में एक्सपर्ट्स से बात करके पूरी जानकारी दे रहे हैं अनूप भटनागर:
एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. दीपांकर भौमिक, अडिशनल प्रफेसर, डिपार्टमेंट ऑफ नेफ्रॉलजी, एम्स
डॉ. एस. सी. तिवारी, डायरेक्टर, फोर्टिस इंस्टिट्यूट ऑफ रीनल साइंसेज
डॉ. शबाना आजमी, हेड, होम्योकेयर
रामनिवास पाराशर, चीफ एडवाइजर, वेदांता आयुर्वेद
अनीता लांबा, डायटीशियन
मोहन गुप्ता, एक्सपर्ट, नैचरोपैथी

10 आम आदतें, जो किडनी खराब करती हैं:

1. पेशाब आने पर करने न जाना
2. रोज 7-8 गिलास से कम पानी पीना
3. बहुत ज्यादा नमक खाना
4. हाई बीपी के इलाज में लापरवाही बरतना
5. शुगर के इलाज में कोताही करना
6. बहुत ज्यादा मीट खाना
7. ज्यादा मात्रा में पेनकिलर लेना
8. बहुत ज्यादा शराब पीना
9. पर्याप्त आराम न करना
10. सॉफ्ट ड्रिंक्स और सोडा ज्यादा लेना

नोट: किसी को भी दवाओं को लेकर एक्सपेरिमेंट नहीं करना चाहिए। बहुत-सी दवाएं, खासकर आयुर्वेदिक और यूनानी दवाओं में लेड और पोटैशियम ज्यादा मात्रा में होता है, जो किडनी के लिए बेहद नुकसानदेह साबित होता है।

किडनी की बीमारी से बचने के उपाय - रोज 8-10 गिलास पानी पीएं। 
- फल और कच्ची सब्जियां ज्यादा खाएं। 
- अंगूर खाएं क्योंकि ये किडनी से फालतू यूरिक एसिड निकालते हैं। - मैग्नीशियम किडनी को सही काम करने में मदद करता है, इसलिए ज्यादा मैग्नीशियम वाली चीजें जैसे कि गहरे रंग की सब्जियां खाएं। 
- खाने में नमक, सोडियम और प्रोटीन की मात्रा घटा दें। 
- 35 साल के बाद साल में कम-से-कम एक बार ब्लड प्रेशर और शुगर की जांच जरूर कराएं। 
- ब्लड प्रेशर या डायबीटीज के लक्षण मिलने पर हर छह महीने में पेशाब और खून की जांच कराएं। 
- न्यूट्रिशन से भरपूर खाना, रेग्युलर एक्सरसाइज और वजन पर कंट्रोल रखने से भी किडनी की बीमारी की आशंका को काफी कम किया जा सकता है।
किडनी के मरीज खाने में रखें ख्याल किसी शख्स की किडनी कितना फीसदी काम कर रही है, उसी के हिसाब से उसे खाना दिया जाए तो किडनी की आगे और खराब होने से रोका जा सकता है :

1. प्रोटीन : 1 ग्राम प्रोटीन/किलो मरीज के वजन के हिसाब से लिया जा सकता है। नॉनवेज खानेवाले 1 अंडा, 30 ग्राम मछली, 30 ग्राम चिकन और वेज लोग 30 ग्राम पनीर, 1 कप दूध, 1/2 कप दही, 30 ग्राम दाल और 30 ग्राम टोफू रोजाना ले सकते हैं।

2. कैलरी : दिन भर में 7-10 सर्विंग कार्बोहाइड्रेट्स की ले सकते हैं। 1 सर्विंग बराबर होती है - 1 स्लाइस ब्रेड, 1/2 कप चावल या 1/2 कप पास्ता।

3. विटामिन : दिन भर में 2 फल और 1 कप सब्जी लें।

4. सोडियम : एक दिन में 1/4 छोटे चम्मच से ज्यादा नमक न लें। अगर खाने में नमक कम लगे तो नीबू, इलाइची, तुलसी आदि का इस्तेमाल स्वाद बढ़ाने के लिए करें। पैकेटबंद चीजें जैसे कि सॉस, आचार, चीज़, चिप्स, नमकीन आदि न लें।

5. फॉसफोरस : दूध, दूध से बनी चीजें, मछली, अंडा, मीट, बीन्स, नट्स आदि फॉसफोरस से भरपूर होते हैं इसलिए इन्हें सीमित मात्रा में ही लें। डॉक्टर फॉसफोरस बाइंडर्स देते हैं, जिन्हें लेना न भूलें।

6. कैल्शियम : दूध, दही, पनीर, टोफू, फल और सब्जियां उचित मात्रा में लें। ज्यादा कैल्शियम किडनी में पथरी का कारण बन सकता है।

7. पोटैशियम : फल, सब्जियां, दूध, दही, मछली, अंडा, मीट में पोटैशियम काफी होता है। इनकी ज्यादा मात्रा किडनी पर बुरा असर डालती है। इसके लिए केला, संतरा, पपीता, अनार, किशमिश, भिंडी, पालक, टमाटर, मटर न लें। सेब, अंगूर, अनन्नास, तरबूज़, गोभी ,खीरा , मूली, गाजर ले सकते हैं।

8. फैट : खाना बनाने के लिए वेजिटबल या ऑलिव ऑयस का ही इस्तेमाल करें। बटर, घी और तली -भुनी चीजें न लें। फुल क्रीम दूध की जगह स्किम्ड दूध ही लें।

9. तरल चीजें : शुरू में जब किडनी थोड़ी ही खराब होती है तब सामान्य मात्रा में तरल चीजें ली जा सकती हैं, पर जब किडनी काम करना कम कर दे तो तरल चीजों की मात्रा का ध्यान रखें। सोडा, जूस, शराब आदि न लें। किडनी की हालत देखते हुए पूरे दिन में 5-7 कप तरल चीजें ले सकते हैं।

10. सही समय पर उचित मात्रा में जितना खाएं, पौष्टिक खाएं।
खाने में इनसे करें परहेज - फलों का रस, कोल्ड ड्रिंक्स, चाय-कॉफी, नीबू पानी, नारियल पानी, शर्बत आदि। - सोडा, केक और पेस्ट्री जैसे बेकरी प्रॉडक्ट्स और खट्ट‌ी चीजें। - केला, आम, नीबू, मौसमी, संतरा, आडू, खुमानी आदि। - मूंगफली, बादाम, खजूर, किशमिश और काजू जैसे सूखे मेवे। - चौड़ी सेम, कमलककड़ी, मशरूम, अंकुरित मूंग आदि। - अचार, पापड़, चटनी, केचप, सत्तू, अंकुरित मूंग और चना। - मार्केट के पनीर के सेवन से बचें। बाजार में मिलने वाले पनीर में नींबू, सिरका या टाटरी का इस्तेमाल होता है। इसमें मिलावट की भी गुंजाइश रहती है।

कैसे तैयार करें खाना- - वेजिटेबल ऑयल और घी आदि बदल-बदल कर इस्तेमाल करें। - घर पर ही नीबू के बजाय दही से डबल टोंड दूध फाड़कर पनीर बनाएं। - खाना पकाने से पहले दाल को कम-से-कम दो घंटे और सब्जियों को एक घंटे तक गुनगुने पानी में रखें। इससे उनमें पेस्टिसाइड्स का असर कम किया जा सकता है। -महीने में एकाध बार लीचिंग प्रक्रिया अपनाकर घर में छोले और राजमा भी खा सकते हैं, पर इसकी तरी के सेवन से बचें। -नॉनवेज खानेवाले रेड मीट का सेवन नहीं करें। चिकन और मछली भी एक सीमित मात्रा में ही खाएं। -रोजाना कम-से-कम दो अंडों का सफेद हिस्सा खाने से जरूरी मात्रा में प्रोटीन मिलता है।

शुरुआती लक्षण - पैरों और आंखों के नीचे सूजन - चलने पर जल्दी थकान और सांस फूलना - रात में बार-बार पेशाब के लिए उठना - भूख न लगना और हाजमा ठीक न रहना - खून की कमी से शरीर पीला पड़ना

नोट: इनमें से कुछ या सारे लक्षण दिख सकते हैं।

देर से पता लगती है बीमारी

पहली स्टेज: पेशाब में कुछ गड़बड़ी पता चलती है लेकिन क्रिएटनिन और ईजीएफआर (ग्लोमेरुलर फिल्टरेशन रेट) सामान्य होता है। ईजीएफआर से पता चलता है कि किडनी कितना फिल्टर कर पा रही है।

दूसरी स्टेज: ईजीएफआर 90-60 के बीच में होता है लेकिन क्रिएटनिन सामान्य ही रहता है। इस स्टेज में भी पेशाब की जांच में प्रोटीन ज्यादा होने के संकेत मिलने लगते हैं। शुगर या हाई बीपी रहने लगता है।

तीसरी स्टेज: ईजीएफआर 60-30 के बीच में होने लगता है, वहीं क्रिएटनिन भी बढ़ने लगता है। इसी स्टेज में किडनी की बीमारी के लक्षण सामने आने लगते हैं। अनीमिया हो सकता है, ब्लड टेस्ट में यूरिया ज्यादा आ सकता है। शरीर में खुजली होती है। यहां मरीज को डॉक्टर से सलाह लेकर अपना लाइफस्टाइल सुधारना चाहिए।

चौथी स्टेज: ईजीएफआर 30-15 के बीच होता है और क्रिएटनिन भी 2-4 के बीच होने लगता है। यह वह स्टेज है, जब मरीज को अपनी डायट और लाइफस्टाइल में जबरदस्त सुधार लाना चाहिए नहीं तो डायैलसिस या ट्रांसप्लांट की स्टेज जल्दी आ सकती है। इसमें मरीज जल्दी थकने लगता है। शरीर में कहीं सूजन आ सकती है।

पांचवीं स्टेज : ईजीएफआर 15 से कम हो जाता है और क्रिएटनिन 4-5 या उससे ज्यादा हो जाता है। फिर मरीज के लिए डायैलसिस या ट्रांसप्लांट जरूरी हो जाता है।

नोट: शुरुआती स्टेज में किडनी की बीमारी को पकड़ना बहुत मुश्किल है क्योंकि दोनों किडनी के करीब 60 फीसदी खराब होने के बाद ही खून मे क्रिएटनिन बढ़ना शुरू होता है।

क्या है इलाज
इस बीमारी के इलाज को मेडिकल भाषा में रीनल रिप्लेसमेंट थेरपी (RRT) कहते हैं। किडनी खराब होने पर फाइनल इलाज तो ट्रांसप्लांट ही है, लेकिन इसके लिए किडनी डोनर मिलना मुश्किल है, इसलिए इसका टेंपररी हल डायैलसिस है। यह लगातार चलनेवाले प्रोसेस है और काफी महंगा है।

क्या है डायैलसिस 
खून को साफ करने और इसमें बढ़ रहे जहरीले पदार्थों को मशीन के जरिए बाहर निकालना ही डायैलसिस है। 

डायैलसिस दो तरह की होती है:

1. हीमोडायैलसिस : सिर्फ अस्पतालों में ही होती है। तय मानकों के तहत अस्पताल में किसी मरीज की हीमोडायैलसिस में चार घंटे लगते हैं और हफ्ते में कम-से-कम दो बार इसे कराना चाहिए। इसे बढ़ाने या घटाने का फैसला डॉक्टर ही कर सकते हैं।

2. पेरीटोनियल : पानी से डायैलसिस घर पर की जा सकती है। इसके लिए पेट में सर्जरी करके वॉल्व जैसी चीज डाली जाती है। इसका पानी भी अलग से आता है। डॉक्टर घर में किसी को करना सिखा देते हैं। यह थोड़ी कम खर्चीली है लेकिन इसमें सफाई का बहुत ज्यादा ध्यान रखना होता है, वरना इन्फेक्शन हो सकता है।

कैसे होती है हीमोडायैलसिस इमरजेंसी में मरीज की गर्दन के निचले हिस्से में कैथेटर डालकर या फिर जांघ की ब्लड वेसल्स में फेमोरल प्रक्रिया से डायैलसिस की जाती है। 
रेग्युलर डायैलसिस के लिए मरीज की बाजू में सर्जरी करके 'एवी फिस्टुला' बनाया जाता है ताकि बगैर किसी परेशानी के डायैलसिस की जा सके। एवी फिस्टुला में आर्टरी को नाड़ी से जोड़ा जाता है। इस तरह से बनाए गए फिस्टुला को काम करने लायक होने में 8 हफ्ते लगते हैं। 
फिस्टुला डायैलसिस कराने वाले मरीजों की लाइफलाइन है, इसलिए इसकी हिफाजत बहुत जरूरी है। ध्यान रखें कि जिस हाथ में फिस्टुला बना है, उससे न तो बीपी नापा जाए और न ही जांच के लिए खून निकाला जाए। इस हाथ में इंजेक्शन भी नहीं लगवाना चाहिए। यह हाथ न तो दबना चाहिए और न ही इससे भारी सामान उठाना चाहिए। 
अगर एवी फिस्टुला सही समय पर बन जाए तो मरीज के लंबे समय तक जीवित रहने की संभावना बढ़ जाती है।

कितना हो फर्क 
किडनी की समस्या से जूझ रहे मरीज की हफ्ते में 8 से 12 घंटे डायैलसिस होनी चाहिए। चूंकि आमतौर पर एक बार में चार घंटे की डायैलसिस होती है, इसलिए मरीज की सेहत को ध्यान में रखते हुए डॉक्टर उसे हफ्ते में दो बार या हर तीसरे/ दूसरे दिन डालसिसिस कराने की सलाह देते हैं। मरीज को अपनी मर्जी से दो डायैलसिस के बीच का फर्क नहीं बढ़ाना चाहिए 
क्योंकि ऐसा करने पर कभी-कभी बड़ी परेशानी पैदा हो जाती है और मरीज आईसीयू तक में पहुंच जाता है।

खर्च 
एक डायैलसिस पर 2000 से 3000 रुपये खर्च आता है। महीने में 8-10 डायैलसिस कराने पर करीब 25 से 30 हजार रुपये खर्च होते हैं। सरकारी अस्पतालों में डायैलसिस मशीनें और डायैलसिस करने वाले ट्रेंड कर्मी जरूरी संख्या में नहीं हैं। जो मरीज वहां भर्ती हैं, सिर्फ उन्हीं को डायैलसिस की सुविधा मिलती है। डायैलसिस मेडिक्लेम में कवर है।

ध्यान दें: दिल्ली सरकार छह अस्पतालों में 120 डायैलसिस मशीनें लगा रही है। इनमें गरीबी की रेखा से नीचे जिंदगी गुजारनेवालों की मुफ्त डायैलसिस होगी, जबकि आम जनता को इसके लिए 1073 रुपये देने होंगे।
ये अस्पताल हैं: 1. राजीव गांधी सुपर स्पेशलिटी स्पिटल, ताहिलपुर 2. डॉ. हेड़गेवार आरोग्य संस्थान, कड़कड़डूमा 3. जनकपुरी सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल, जनकपुरी 4. भगवान महावीर हॉस्पिटल, पीतमपुरा 5. पं. मदन मोहन मालवीय हॉस्पिटल, मालवीय नगर 6. लोकनायक जयप्रकाश हॉस्पिटल, दिल्ली गेट

खून की नियमित जांच जरूरी 
- डायैलसिस कराने वाले मरीजों को महीने में कम-से-कम एक बार खून की जांच (KFT) करानी चाहिए। इस जांच से मरीज के शरीर में हीमोग्लोबीन, ब्लड यूरिया, क्रिएटनिन, पोटैशियम, फॉस्फोरस और सोडियम की मात्रा का पता लगता है।

- हालात के अनुसार समय-समय पर डॉक्टर मरीज के खून की जांच के जरिए शरीर में पीटीएच, आयरन और बी-12 आदि की भी जांच करते हैं। - हर डायैलसिस यूनिट अपने मरीजों से हर छह महीने पर एचआईवी, हैपेटाइटिस बी और सी के लिए खून की जांच कराने का अनुरोध करती है।
- अगर किसी मरीज की रिपोर्ट से उसके एचआईवी, हैपेटाइटिस बी या सी से प्रभावित होने का संकेत मिलता है तो उसकी डायैलसिस में खास सावधानी बरती जाती है। ऐसे मरीज की डायैलसिस में हर बार नए डायैलजर का इस्तेमाल होता है ताकि कोई दूसरा मरीज इस इन्फेक्शन की चपेट में न आ सके।

बरतें ये सावधानियां 
- डायैलसिस कराने वालों को लिक्विड चीजें कम लेनी चाहिए। किडनी खराब होने पर खून की सफाई के प्रॉसेस में रुकावट आती है और आमतौर पर मरीज को पेशाब भी कम आने लगता है, इसलिए उन्हें सीमित मात्रा में लिक्विड चीजें लेनी चाहिए।
- लिक्विड चीजों में पानी के अलावा दूध, दही, चाय, कॉफी, आइसक्रीम, बर्फ और दाल-सब्जियों की तरी भी शामिल हैं। यही नहीं, रोटी, चावल और ब्रेड आदि में भी पानी होता है।
- लिक्विड पर कंट्रोल रखने से दो डायैलसिस के बीच में मरीज का वजन (जिसे वेट गेन या वॉटर रिटेंशन भी कहते हैं) अधिक नहीं बढ़ता। दो डायैलसिस के बीच में ज्यादा वजन बढ़ने से डायैलसिस का प्रॉसेस पूरा होने पर कई बार कमजोरी या चक्कर आने की शिकायत भी होने लगती है।
- किडनी के मरीज को डायटीशियन से भी जरूर मिलना चाहिए क्योंकि इस बीमारी में खानपान पर कंट्रोल बहुत जरूरी है।
- किडनी के जो मरीज डायैलसिस पर नहीं हैं, उन्हें कम प्रोटीन और डायैलसिस कराने वाले मरीजों को ज्यादा प्रोटीन की जरूरत होती है। लेकिन खानपान की पूरी जानकारी डायट एक्सपर्ट ही दे सकते हैं।
- डायैलसिस कराने वाले शख्स को कोई भी दवा लेने से पहले अपने किडनी एक्सपर्ट (नेफ्रॉलजिस्ट) से सलाह जरूरी है। नोट: किडनी की बीमारी सुनकर जिंदगी खत्म होने की बात सोचना गलत है क्योंकि अगर खानपान और रुटीन में सावधानी बरती जाए तो डायैलसिस कराते हुए भी लंबी जिंदगी का आनंद लिया जा सकता है। मरीज को घर-परिवार, रिश्तेदारों और दोस्तों का पूरा साथ मिलना जरूरी है ताकि वह उलट परिस्थितियों का ज्यादा संयम के साथ सामना कर सके।
लिक्विड का सेवन ऐसे कम करें 

डायैलसिस कराने वाला शख्स नीचे लिखे तरीकों से लिक्विड का सेवन कम कर सकता है:
- गर्मियों में 500 एमएल की कोल्ड ड्रिंक की बोतल में पानी भरके उसे फ्रीजर में रख लें। यह बर्फ बन जाएगा और फिर इसका धीरे-धीरे सेवन करें।
- फ्रिज में बर्फ जमा लें और प्यास लगने पर एक टुकडा मुंह में रखकर घुमाएं और फिर उसे फेंक दें।
- गर्मियों में रुमाल भिगोकर गर्दन पर रखने से भी प्यास पर काबू पाया जा सकता है।
- घर में छोटा कप रखें और उसी में पानी लेकर पीएं।
- खाना खाते समय दाल और सब्जियों की तरी का सेवन कम-से-कम करने की कोशिश करें।

आयुर्वेद
बीमारी की वजह के आधार पर ही जरूरी दवा खाने की सलाह दी जाती है:
- चूंकि किडनी का काम शरीर में खून की सफाई करना और जहरीली चीजों को बाहर निकालना होता है। इलाज के दौरान मरीज के खानपान को सुधारने के साथ ही उसके बीपी और शुगर को कंट्रोल में रखने पर खास ध्यान दिया जाता है।
- वरुण, पुनर्नवा, अर्जुन, वसा, कातुकी, शतावरी, निशोध, कांचनार, बाला, नागरमोथा, भबमिआमलकी, सारिवा, अश्वगंधा और पंचरत्नमूल आदि दवाओं का इस्तेमाल किडनी के इलाज में किया जाता है।
- किडनी की बीमारी का लगातार इलाज जरूरी है और यह ताउम्र चलता है। किडनी की बीमारी का इलाज से ज्यादा मैनेजमेंट होता है।

होम्यॉपथी 
लक्षणों के आधार पर कॉलि-कार्ब 200, एपिस-मेल-30, एसिड बेंजोक, टेरीबिंथ,बर्बेरिस वल्गरीस, लेसीथिन, फेरम मेट और चाइना जैसी दवाएं दी जाती हैं। थकान और कमजोरी दूर करने के लिए अल्फाल्फा टॉनिक भी दिया जाता है।

नोट: होम्यॉपथी डायैलसिस बंद कराने में सक्षम नहीं है लेकिन यह ऐसे मरीजों की सहायक जरूर है। ऐलोपैथी दवाओं के साथ ही होम्योपैथी दवाओं के सेवन से मरीज ज्यादा सेहतमंद रह सकता है।

नेचरॉपथी 
- किडनी की क्षमता बढ़ाने के लिए नेचरोपैथी में मरीद को सलाद, फल आदि कुदरती चीजें लेने को कहा जाता है। इससे किडनी की सफाई शुरू होती है और उसे आराम भी मिलता है।
- किडनी की जगह पर सूती कपड़े की पट्टी को ताजे पानी में भिगोकर रोजाना आधे घंटे लगाते हैं। ऐसा करने से किडनी की तरफ के शरीर का तापमान कम होता है और उस ओर खून का दौरा बढ़ता है।
- इसी तरह किडनी की जगह पर गर्म और ठंडे पानी से सिकाई करते हैं। इसे भी रोजाना आधे घंटे के लिए कर सकते हैं। इससे किडनी में खून का दौरा बढ़ता है।
- धूप स्नान के जरिए सुबह-सुबह किडनी पर सूरज की सीधी किरणों से इलाज किया जाता है और किडनी की सफाई होती है।
- मरीज को एक टब में बिठाकर उसकी नाभि तक पानी रखा जाता है। यह क्रिया आधे घंटे तक की जाती है। कटिस्नान से भी किडनी की ओर खून का दौरा बढ़ता है।

योग
- रोजाना कम-से-कम 20 मिनट तक अनुलोम-विलोम करना चाहिए।
- गलत लाइफस्टाइल और बुरी आदतों को छोड़ दें तो किडनी के साथ-साथ दूसरी बीमारियों से भी बचने की संभावना काफी बढ़ जाती है।

किडनी ट्रांसप्लांट
किडनी खराब होने का परमानेंट इलाज ट्रांसप्लांट के जरिए ही मुमकिन है।
कहां होता है: सरकारी अस्पतालों में एम्स और आरएमएल के अलावा सर गंगाराम, मैक्स, अपोलो, फोर्टिस, रॉकलैंड और बी. एल. कपूर आदि प्राइवेट हॉस्पिटलों में भी ट्रांसप्लांट होता है।
कितना खर्च: किडनी किसी ब्रेन डेड शख्स की ली जाती है तो सरकारी अस्पताल में करीब 2 लाख रुपये तक वरना 7-8 लाख रुपये तक खर्च आता है। अगर किडनी देने वाले और लेनेवाले का ब्लड ग्रुप मैच नहीं करता तो खर्च बहुत बढ़ जाता है।

क्या हैं नियम: ह्यूमन ऑर्गन ट्रांसप्लांट कानून में उन लोगों की जानकारी दी गई है, जो अंग दान कर सकते हैं। डोनेशन के प्रॉसेस के तहत एक समिति दानकर्ता से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर विचार करती है। इस प्रॉसेस की वीडियोग्राफी भी की जाती है ताकि डोनर से संबंधित सारे फैक्ट्स रिकार्ड में रहें। आमतौर पर ब्लड रिलेशन वाले लोगों को अंगदान के लिए सबसे सही माना जाता है।

कैसे होता है: ट्रांसप्लांट के प्रोसेस के दौरान मरीज और डोनर के ब्लड ग्रुप से लेकर टिश्यू मैचिंग तक कई टेस्ट करके यह तय किया जाता है कि डोनर मरीज के लिए सही है या नहीं। ट्रांसप्लांट के बाद हालांकि डोनर कुछ ही दिनों में सामान्य जीवन जीने लगता है लेकिन मरीज को काफी सावधानी बरतनी होती है। मरीज को ट्रांसप्लांट के बाद दूसरे लोगों से अलग रखा जाता है ताकि उसे किसी तरह का इन्फेक्शन न हो। अस्पताल से घर पहुंचने पर भी कुछ महीने परिवार के सदस्यों से भी दूरी बनाकर रखने की सलाह दी जाती ह। इन्फेक्शन से बचने के लिए हमेशा मुंह पर पटटी लगा कर रखनी होती है। किसी के भी कॉन्टैक्ट में आने पर फौरन हाथ साफ करने होते हैं। किडनी एक्सपर्ट की देखरेख में हमेशा दवाएं खानी होती हैं और जांच भी करानी होती है।

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