लकवा
लकवा, जिसे फालिज या पक्षाघात कहते हैं, ज्यादातर प्रौढ़ आयु के बाद ही होता है, लेकिन इसकी पृष्ठभूमि बहुत पहले से बनने लगती है।
युवावस्था में की गई गलतियाँ-भोग-विलास में अति करना, मादक द्रव्यों का सेवन करना, आलसी रहना आदि कारणों से शरीर का स्नायविक संस्थान धीरे-धीरे कमजोर होता जाता है। जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है, इस रोग के आक्रमण की आशंका भी बढ़ती जाती है।
ध्यान देने योग्य एक बात यह भी है कि सिर्फ आलसी जीवन जीने से ही नहीं, बल्कि इसके विपरीत अति भागदौड़, क्षमता से ज्यादा परिश्रम या व्यायाम, अति आहार आदि कारणों से भी लकवा होने की स्थिति बनने लगती है।
यह वायु रोग है, कुपित हुई वायु शरीर के दाएँ या बाएँ भाग पर आघात कर उस भाग की शारीरिक चेष्टाओं का नाश व अनुभूति और वाणी में रुकावट उत्पन्न कर देती है। इसे पक्षाघात यानी लकवा कहते हैं।
पक्षाघात के प्रकार
अर्दित : सिर्फ चेहरे पर लकवे का असर होने को अर्दित (फेशियल पेरेलिसिस) कहते हैं। अर्थात सिर, नाक, होठ, ढोड़ी, माथा तथा नेत्र सन्धियों में कुपित वायु स्थिर होकर मुख को पीड़ित कर अर्दित रोग पैदा करती है।
एकांगघात : इसे एकांगवात भी कहते हैं। इस रोग में मस्तिष्क के बाह्यभाग में विकृति होने से एक हाथ या एक पैर कड़ा हो जाता है और उसमें लकवा हो जाता है। यह विकृति सुषुम्ना नाड़ी में भी हो सकती है। इस रोग को एकांगघात (मोनोप्लेजिया) कहते हैं।
सर्वांगघात : इसे सर्वांगवात रोग भी कहते हैं। इस रोग में लकवे का असर शरीर के दोनों भागों पर यानी दोनों हाथ व पैरों, चेहरे और पूरे शरीर पर होता है, इसलिए इसे सर्वांगघात (डायप्लेजिया) कहते हैं।
अधरांगघात : इस रोग में कमर से नीचे का भाग यानी दोनों पैर लकवाग्रस्त हो जाते हैं। यह रोग सुषुम्ना नाड़ी में विकृति आ जाने से होता है। यदि यह विकृति सुषुम्ना के ग्रीवा खंड में होती है, तो दोनों हाथों को भी लकवा हो सकता है। जब लकवा 'अपर मोटर न्यूरॉन' प्रकार का होता है, तब शरीर के दोनों भाग में लकवा होता है।
बाल पक्षाघात : बच्चे को होने वाला पक्षाघात एक तीव्र संक्रामक रोग है। जब एक प्रकार का विशेष कृमि सुषुम्ना नाड़ी में प्रविष्ट होकर वहाँ खाने लगता है, तब सूक्ष्म नाड़ियाँ और माँसपेशियां आघात पाती हैं, जिसके कारण उनके अधीनस्थ शाखा क्रियाहीन हो जाती है। इस रोग का आक्रमण अचानक होता है और प्रायः 6-7 माह की आयु से ले कर 3-4 वर्ष की आयु के बीच बच्चों को होता है।
द्यपि लकवा एक कठिन साध्य रोग है और इसकी चिकित्सा किसी रोग विशेषज्ञ चिकित्सक से ही कराई जानी चाहिए, तथापि जब इस रोग के प्रभाव को कम करने में सहायक सिद्ध हो सकने वाले घरेलू नुस्खे प्रस्तुत हैं। यह विवरण इस रोग की सम्पूर्ण चिकित्सा करने वाला सिद्ध हो, यह जरूरी नहीं।
1. बला मूल (जड़) का काढ़ा सुबह-शाम पीने से आराम होता है।
2. उड़द, कौंच के छिलकारहित बीज, एरण्डमूल और अति बला, सब 100-100 ग्राम ले कर मोटा-मोटा कूटकर एक डिब्बे में भरकर रख लें। दो गिलास पानी में 6 चम्मच चूर्ण डालकर उबालें। जब पानी आधा गिलास बचे तब उतारकर छान लें और रोगी को पिला दें। यह काढ़ा सुबह व शाम को खाली पेट पिलाएँ।
3. लहसुन की 4 कली सुबह और शाम को दूध के साथ निगलकर ऊपर से दूध पीना चाहिए। लहसुन की 8-10 कलियों को बारीक काटकर एक कप दूध में डालकर खीर की तरह उबालें और शकर डालकर उतार लें। यह खीर रोगी को भोजन के साथ रोज खाना चाहिए।
4. तुम्बे के बीजों को पानी में पीसकर लकवाग्रस्त अंग पर लेप करने से लाभ होता है।
5. सौंठ और सेंधा नमक बराबर मात्रा में लेकर पीस लें। इस चूर्ण को नकसीर की भांति दिन में 2-3 बार सूँघने से लाभ होता है।
6. जंगली कबूतर की बीट और आँकड़े (अर्क या मदार) का दूध बराबर मात्रा में लेकर खरल में घोंटें। इसकी 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना लें। सुबह-शाम 1-1 गोली दूध के साथ लेने से लाभ होता है।
7. कुचलादि वटी- शुद्ध कुचला 10 ग्राम, खरल में डालकर इसमें आवश्यक मात्रा में पानी डालकर अच्छी तरह घुटाई करें। जब महीन घुट जाए तब इसकी 1-1 रत्ती की गोलियाँ बना लें और छाया में सुखा लें। सुबह-शाम 1-1 गोली बने हुए सादे पान में रखकर एक माह तक सेवन करने से इस रोग में लाभ होता है।
आयुर्वेदिक चिकित्सा
* रसराज रस व वृहत वात चिन्तामणि रस 5-5 ग्राम, एकांगीवीर रस, वात गजांकुश रस, पीपल 64 प्रहरी, तीनों 10-10 ग्राम। सबको मिलाकर पीसकर एकजान कर लें। इनकी 60 पुड़िया बना लें। सुबह-शाम 1-1 पुड़िया शहद के साथ एक माह सेवन करें। इसके एक घंटे बाद रास्नाशल्लकी वटी व महायोगराज गूगल स्वर्णयुक्त 2-2 गोली दूध के साथ लें। भोजन के बाद, दोनों वक्त, महारास्नादि काढ़ा और दशमूलारिष्ट 4-4 चम्मच आधा कप पानी में डालकर पिएँ। मालिश के लिए महानारायण तेल, महामाष तेल व बला तेल- तीनों 50-50 मि.ली. लेकर एक ही शीशी में भरकर मिला लें। दिन में दो बार लकवाग्रस्त अंग पर यह तेल लगाकर मालिश करें।
पथ्य : लकवाग्रस्त रोगी के लिए गाय या बकरी का दूध व घी, पुराना चावल, गेहूँ, तिल, परवल, सहिजन की फली, लहसुन, उड़द या मूंग की दाल, पका अनार, खजूर, मुनक्का, अंजीर, आम, फालसा आदि का सेवन करना, तेल मालिश करना और गर्म जल से स्नान करना व गर्म पानी पीना पथ्य है।
अपथ्य : उड़द व मूंग के अतिरिक्त सभी दालें, आलू, ठंडा जल, ठंडा स्थान, ठंडी हवा, सुपारी, तेज मिर्च-मसाले, वातकारक पदार्थ, खटाई, बासा भोजन, मैथुन करना और अपच रहना अपथ्य है।
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