Tuesday, 24 June 2014

तुलसी
















१/ तुलसी प्रत्येक हिंदू घर के आँगन में लगाई जाती है और इसे एक पवित्र वृक्ष माना जाता है.

२/ तुलसी में लगने वाली मंजरियों में तुलसी के बीज लगते हैं. मंजरियों और तुलसीदल का उपयोग पूजा-पाठ में होता है.

३/ मरुवा भी तुलसी की ही भांति एक पौधा होता है, इसके गुण तुलसी की भांति होने के कारण इसे 'मरुवा-तुलसी' भी कहा जाता है.

४/ श्यामा (कृष्ण) तुलसी, सफेद (राम) तुलसी की तुलना में ज्यादा गुणकारी होती है.

५/ घर की हवा को शुद्ध रखने हेतु तुलसी के पौधे को गमलों में लगाना चाहिये. इन गमलों को नित्य, दिन में कमरों के अंदर व संध्या समय बाहर आँगन या बरामदे में (रातभर के लिये) रखना चाहिये. ऐसा करने से घर-परिवार में रोग-शोक नहीं होते हैं.

६/ तुलसी वायु, कफ, सूजन, कृमि एवं वमन का नाश करती है.

[B] आयुर्वेद में तुलसी से बनने वाली प्रमुख औषधियाँ एवं उनके उपयोग इस प्रकार हैं:

(a) लघुराजमृगांक व (b) तुलसी तेल.

(a) लघुराजमृगांक: तुलसी का रस, गाय का घी व कालीमिर्च को समभाग में मिलाने से यह औषधि तैयार हो जाती है.

(b) तुलसी तेल: 'तुलसी की पत्तियों का कल्क, भटकटैया की जड़, दंतमूल, बच, सहजन की छाल, कालीमिर्च और सैंधा नमक' इन सबको समभाग में लेकर उस मात्रा के कुल वजन से चार गुना तिल्ली का तेल और सोलह गुना पानी डालकर विधिवत सिद्ध करके तुलसी तेल का निर्माण किया जाता है.

१/ इन औषधियों की प्रकृति कफघ्न एवं उष्ण होती है.

२/ आयुर्वेद में तुलसी की पत्तियों का उपयोग श्लेष्म, खाँसी व पार्श्वशूल में बहुतायात रूप से किया जाता है. जमे हुये बलगम को तोड़ने के लिये तुलसी का उपयोग किया जाता है. बच्चों की खाँसी एवं बलगम का जमाव तथा प्रौढ़ की खाँसी, दमा, श्वास आदि में जो दवाएँ दी जाती हैं, उनमें सामान्यतया तुलसी की पत्तियों का प्रमुख रूप से प्रयोग किया जाता है.

३/ तुलसी उष्ण-वीर्य होती है, अतः जब भी शरीर में वायु-प्रकोप हो तुलसी का सेवन करना चाहिये. वातज्वर के उपचार में अन्य औषधियों के साथ साथ तुलसी मिलाई जाती है.

४/ तुलसी-सेवन से तन्द्रा दूर होती है, नशे का प्रभाव कम होता है व बड़बड़ानेवाले रोगी की बेहोशी दूर होकर वह होश में आ जाता है.

५/ तुलसी में दीप्ति का गुण होता है अतः उससे जठराग्नि प्रदीप्त होती है.

६/ तुलसी से पेट की वायु, शूल और अफरा आदि दूर होते हैं.

७/ दाँतदर्द में कुचले हुये अदरक के टुकड़े को तुलसी की पत्तियों के मध्य रखकर इसे दर्द वाले दाँत के मध्य रखकर दबाने से पीड़ा दूर होती है. दंतशूल में दाँत की पोली जगह के अंदर इस संयोग को रखने से काफी लाभ होता है.

८/ कालीमिर्च के साथ तुलसी स्वरस का सेवन करने से मलेरिया में आराम मिलता है.

९/ लघुराजमृगांक नामक औषधि के सेवन से सभी प्रकार के वायुरोग नष्ट होते हैं व शरीर तेजस्वी बनता है.

१०/ नाक के रोग में यदि नाक से पपड़ी निकलती हो तो तुलसी की सूखी पत्तियों का चूर्ण रूमाल में रखकर सूँघने से पीनस का प्रभाव क्षीण पड़ जाता है. तुलसी-तेल की बूँदें नासिका में डालने से नासिका की सड़न दूर हो जाती है. इस हेतु २० ग्राम तुलसी स्वरस व २० ग्राम लघुराजमृगांक औषधि का संयोग अत्यंत लाभप्रद होता है.

[C] सुश्रूत आयुर्वेद:

१/ सुश्रुत के अनुसार सफेद मंजरीवाली तथा हरी पत्तियों वाली तुलसी कफ, वायु, विष, स्वास, खाँसी तथा दुर्गन्ध को नष्ट करने वाली है. यह पित्तकारक व पार्श्वशूल-मारक है.

२/ जंगली तुलसी भी ऐसे ही गुणों वाली व विष को नष्ट करने वाली होती है.

३/ काली मंजरी वाली तुलसी कफनाशक है.

[D] घरेलू उपचार: "रोगानुसार अनुपात" (तुलसी का अकेले उपयोग के स्थान पर अन्य संयोग के साथ रोगानुसार अनुपात में उपयोग करने पर ज्यादा लाभ मिलता है, अतः यथासंभव तुलसी का सेवन रोगानुसार अनुपात में ही करना चाहिये.)

१/ किसी भी प्रकार के ज्वर में तुलसी तथा बेल के पत्तों का काढ़ा, तुलसी, बेल व सौंठ का काढ़ा तथा तुलसी की पत्तियों का रस और शहद काफी लाभप्रद हैं.

२/ सन्निपात-ज्वर - तुलसी का रस व तुलसी, अदरक का मिश्र रस.

३/ कफ़ और दमा में - तुलसीरस + मिश्री.

४/ प्रमेह में - बंगभस्म व तुलसीपत्र.

५/ वायुप्रकोप में - प्रभालभस्म + तुलसीपत्र.

६/ रतौंधी - 'प्रबालभस्म + चूहे की लेंडी' पीसकर शहद के साथ मिलाकर आँखों में आँजें.

७/ 'तुलसी-काढ़ा' - लगभग १० ग्राम तुलसी की पत्तियों को ५० ग्राम पानी में उबालकर 'आधा याकि एक चौथाई' पानी शेष रहने पर उसे पीने से ज्वर, सुस्ती, अरुचि, दाह तथा वायु एवं पित्त का शमन होता है.

[E] भावप्रकाश: "तुलसी के विविध नामकरण"

१/ तुलसी - स्वयं की तुलना या उपमा को दूर करने के कारण 'तुलसी' कहलाती है.

२/ सुरसा - तुलसी उत्तम रस के कारण 'सुरसा' कहलाती है.

३/ ग्राम्या - गाँव अथवा विशेष निराली भूमि में होने की प्रकृति के कारण इसे 'ग्राम्या' कहा जाता है.

४/ सुलभा - सभी को सरलतापूर्वक आसानी से उपलब्ध हो जाने के कारण 'सुलभा' कहलाती है.

५/ बहुमंजरी - इसपर अनेक मंजरियों के लगने के कारण यह 'बहुमंजरी' कहलाती है.

६/ अपेतराक्षसी - इसके सानिध्य से राक्षसी पाप दूर भाग जाते हैं.

७/ श्वेत या गोरा तुलसी - सफेद रंग की तुलसी को 'गोरा तुलसी' कहा जाता है.

८/ कृष्ण-तुलसी - श्यामल रंग के कारण काली तुलसी को 'श्यामा या कृष्ण-तुलसी' कहा जाता है.

९/ शूलघ्नी - रोगों का नाश करने के कारण यह नामकरण हुआ.

१०/ देवदुन्दुभी - देवों के लिये आनंददायक होने से यह नाम पड़ा.

[F] गुणों के अनुसार तुलसी के नाम व किस्में:

[१) बर्बरी २) तुवरी ३) तुंगी ४) खरपुष्पा ५) अजगंधिका ६) पर्णास ७) कुठेरक ८) अर्जक ९) वटपत्र]

१/ बर्बरी - अनेकानेक अतिशय गुणों की खान होने के कारण इसे 'बर्बरी' कहा जाता है.

२/ तुवरी - इसका रस तुअर जैसा कसैला होने के कारण इसे 'तुवरी-बर्बरी-तुलसी' कहा जाता है.

३/ तुंगी - विष का नाश करने के कारण इसे 'तुंगी-बर्बरी-तुलसी' कहा जाता है.

४/ खरपुष्पा - कठोर एवं खुरदरे पुष्पों के कारण इसे 'खरपुष्पा-बर्बरी-तुलसी' कहा जाता है.

५/ अजगंधिका - इसकी गंध 'अज' अर्थात बकरे जैसी होने के कारण इसे 'अजगंधिका-बर्बरी-तुलसी' कहते हैं.

६/ पर्णास - यह संपूर्ण पत्तियों को गिराकर पत्तियों से दीप्ति प्रदान करती है अतः 'पर्णास-बर्बरी-तुलसी' कहलाती है.

७/ कुठेरक - श्यामल तुलसी कफ, वायु आदि का शमन करती है, अतः 'कुठेरक-श्यामा-बर्बरी-तुलसी' कहलाती है.

८/ अर्जक - स्वयं गोरवर्ण धारण करने व दूसरों को भी गोरापन प्रदान करने के कारण सफ़ेद तुलसी को 'अर्जक-बर्बरी-तुलसी' कहा जाता है.

९/ वटपत्र - इसकी पत्तियाँ वटवृक्ष के पत्तों के समान होने के कारण इसे 'वटपत्र-बर्बरी-तुलसी' कहा जाता है.

[G] तुलसी की महिमा के बहुआयामी परिदृश्य:

१/ 'अथर्ववेद' के अनुसार त्वचा, मांस तथा अस्थि में महारोग प्रविष्ट होने पर राम (श्वेत) तुलसी उसे नष्ट कर देती है. श्यामा तुलसी सौंदर्यवर्धक है. इसके सेवन से रोगिष्ठ त्वचा के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं और त्वचा पुनः मूल स्वरूप धारण कर लेती है.
तुलसी, त्वचा के लिये अदभुत गुणकारी है.

२/ 'भावमिश्र' के अनुसार तुलसी कटु, तिक्त (अर्थात तीखी), रसयुक्त, हृदय-हितकर, उष्ण, दाह-पित्त को उत्पन्न करने वाली और अग्निदीपक है. यह कुष्ठ, मूत्रकृच्छ्र, रक्तविकार,पार्श्वशूल, कफ तथा वात को नष्ट करने वाली है. श्वेत व कृष्ण दोनों तुलसी गुणों में करीब करीब समान हैं.

३/ 'चरक-सूत्र २७,१६९' के अनुसार तुलसी हिचकी, खाँसी, विषदोष, श्वास और पार्श्वशूल को नष्ट करती है. तुलसी पित्त को उत्पन्न करने वाली तथा वात, कफ एवं मुँह की दुर्गन्ध को नष्ट करती है.

४/ 'चरक-सूत्र २७-९९, १०३, १०४' के अनुसार कठिंजर (कृष्ण) तुलसी की पत्तियों कि सब्जी पचने में भारी, रुक्ष-प्रभावी तथा विष्टंभ करने वाली है. किन्तु यदि तुलसी की पत्तियों को पानी में उबालकर व रस निचोड़कर तथा प्रचुर मात्रा में देशीगाय का घी मिलाकर या उसमें तलकर सब्जी तैयार की जाये तो वह अत्यंत मधुर, पाकयुक्त, शीतवीर्य व मलबंधहर होती है.

५/ 'चरक-सूत्र २७-९६, ९८' के अनुसार बर्बरी तथा अर्जक (कुठेरक) तुलसी की सब्जी तिक्तरस, शीतवीर्य, कटुपाकी व कफपित्तहर होती है.

६/ 'निघंटु रत्नाकर' के अनुसार श्वेत व काली दोनों प्रकार की तुलसी कटुरसयुक्त, उष्ण व तीक्ष्ण हैं. ये दाह और पित्तकारक, हृदयहितकारी, तीखी, अग्निदीपक, वात, कफ, श्वास, खाँसी, हिचकी तथा कृमि को नष्ट करने वाली हैं. साथ ही सस्थ ये वमन, दुर्गन्ध, कुष्ठ, पार्श्वशूल, विषदोष, मूत्रकृच्छ्र, रक्तदोष, भूतबाधा, शूल, ज्वर व हिचकी नष्ट करती है.

७/ 'राजनिघंटु १०, १५८' के अनुसार तुलसी कटु, टिकट, रूचिवर्धक, कफ व पित्त का नाश करने वाली तथा शूक्ष्म कृमियों को मारने वाली होती है.

८/ 'धन्वंतरि निघंटु' के अनुसार तुलसी लघु, उष्ण, कफनाशक, कृमिनाशक है. यह जठराग्नि को प्रदीप्त कर रूचि को बढ़ाती है.

९/ 'राजवल्लभ' के अनुसार तुलसी रोगप्रतिकारक , शुष्कता, खाँसी, श्वास, अरुचि और पसली का दर्द आदि अनेकानेक रोगों पर विजय प्राप्त करने की क्षमता रखती है.

[H] पद्मपुराण के अनुसार :

१/ जब भगवान विष्णु ने अमृतमंथन किया था तब औषधियों और रसों में प्राणिमात्र के कल्याणार्थ सर्वप्रथम तुलसी की ही उत्पत्ति की थी.

२/ तुलसी की गंध हवा के साथ दूर-सुदूर जहाँ तक भी जाती है, वहाँ तक के वातावरण को व उस वातावरण में रहने वाले प्राणियों को वह पवित्र और निर्विकार बनाती है.

३/ जिस घर में तुलसी का पौधा होता है उस घर का वातावरण तीर्थस्थल के समान हो जाता है. वहाँ व्याधिरूपी यमराज प्रवेश नहीं कर पाते हैं.

४/ जिस घर में तुलसी का जल और मिट्टी मिट्टी मौजूद हों, वहाँ यम के गण ठहर नहीं पाते.
अर्थात जिन घरों में तुलसी के जल और मिट्टी का उपयोग किया जाता है वहाँ रोग के कीटाणुओं का उद्भव नहीं हो सकता.

५/ जिस घर या गाँव में तुलसी उगी हुई होती है, वहाँ तीनों लोकों के स्वामी 'भगवान विष्णु' निवास करते हैं तथा उस घर या गाँव में दरिद्रता, बंधुवियोग आदि कोई भी उपद्रव नहीं होते हैं.

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